अल्मोड़ा जिले का प्रसिद्ध स्यालदे बिखौती मेला – जाने क्या है इसकी महत्ता

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अल्मोड़ा से 72 किमी एवं रानीखेत से 34 किमी दूर श्री बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित ऐतिहासिक मंदिरों की नगरी जिसे सांस्कृतिक नगरी के नाम से भी जाने जाना वाले द्वाराहाट में प्रतिवर्ष 14-15 अप्रैल को स्यालदे विखौती मेला बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। कत्यूरी राजाओं द्वारा 30 ध्वज मंदिरों व देवालों सहित 365 पानी के नौलों के रूप में निर्मित द्वारहाट नगरी में यह मेला बसंत के आगमन का प्रतीक हैै। वहीं पूरे कुमाऊँ में गाये जाने वाले झोड़े का मिश्रण पहले द्वारहाट से ही प्रारम्भ होता है।

कुमाऊँनी लोक संस्कृति व शौर्य की झांकी प्रस्तुत करने वाला शायद ही अन्य कोई मेला बचा रहा हो जो स्यालदे बिखौती की तरह शान के साथ मनाया जाता है। यद्यपि बढ़ती मंहगाई के कारण ढोल-नगारों की संख्या में कमी आयी हो, परन्तु आज भी अपने अमूल्य पुरातन इतिहास को संजाये यह मेला उसी गति में चल रहा है जैसे आज से एक सदी पूर्व। पुराने परिवारों में बूढ़े, जवान व महिलायें गाते बजाते अलमस्त होकर जत्थे के जत्थों में मेले में पहुंचते हैं। सुबह 8 बजे से शुरू होने वाले मेले में दिन के 12 बजे के आस पास लगभग 70 हजार की भीड़ जमा हो जाती है।

रंग-बिरंगे परिधानों में विशुद्ध कुमाऊँनी संस्कृति से जुड़े मेले की कहानी कुछ इस प्रकार है-
द्वाराहाट स्थित शीतला देवी के प्राचीन मंदिर से लगा देवी का तालाब ( पुश्कर ) है। प्राचीनकाल में विशवत् संक्रान्ति पर्व पर विभाण्डेश्वर व यहां नहाने का मेला लगता था। दूर-दूर से स्नानार्थी आकर पुश्कर में स्नानादि कर देवी शीतला के दर्शन किया करते थे। बाद में शीतला पुश्कर का नाम बिगड़ते-बिगड़ते स्यालैद पोखर हो गया। स्यालदे शीतला का और पोखर का, पोखर पुश्कर का अपभ्रंश बन गया। जनश्रुति के अनुसार एक बार नहाने के लिए आये दो जत्थों में किसी बात पर झगड़ा हो गया। पहला जत्था दूसरे पर हावी होते गया। जब दूसरा जत्था बुरी तरह पिटने लगा तो उसने शीतला देवी को पुकारा तभी देवी की कृपा ऐसी हुई कि पिटने वाले जत्थे में से एक व्यक्ति पर माता शीतला देवी चढ़ी और उसने पहले जत्थे के खिलाफ दूसरे जत्थे पर हाँक लगाई। देखते ही देखते पासा पलट गया। पहला जत्था हारने लगा। भगदड़ में जब उसका सरदार बचने के लिए भागा तो दूसरे जत्थे द्वारा पकड़ लिया गया और उसका सिर काटकर पुश्कर के ही सामने खेत में गाड़ दिया गया। उसके ऊपर विजय चिन्ह के प्रतीक रूप में एक बड़ा पत्थर गाड़ दिया गया जिसे अब ‘ओड़ा’ कहते हैं। इस घटना के बाद से शीतला पुश्कर नहान का मेला ऐतिहासिक मेले में बदल गया जो प्रतिवर्ष 2 गते वैशाख को मनाया जाता है। चैत्र मास के अन्तिम दिन स्यालदे मेला द्वाराहाट से 3 मील दूर सूरमी, नन्दनी व गुप्त सरस्वती, तीन नदियों के संगम स्थल विभाण्डेश्वर में प्रारम्भ होता है और विश्वत् संक्रान्ति को वहां स्नान पूजा के बाद तीसरे दिन द्वारहाट में ओड़ा भेटने की रस्म के साथ समाप्त होता है। इसीलिए इसे स्यालदे विखौती मेला भी कहते हैं।


विश्वत् संक्रान्ति के एक दिन पूर्व सायं से ही गाँव – गाँव से लोग ढोल नगारों व तुमरी की ध्वनि के साथ गाते बजाते छोलिया नृत्य करते, मशालें जलाये विभाण्डेश्वर की ओर चल पड़ते हैं। सारे रास्ते झोड़े-चाचरी गाते-नाचते रात्रि एक बजे से दो बजे के करीब संगम स्थल पहुंचकर पूर्व ही नियत अपने डेरों ;विश्राम स्थलोंद्ध में जाते हैं। जहां शेष रात्रि भर नाचन-गाना चलता रहता है। सूर्योदय से पहले सभी कौतिककार ( मेलार्थी ) नहा धोकर अपने घरों को वापस जाते हैं। दिन में (वैशाख 1 गते) पुनः ढोल – नगारों के साथ द्वाराहाट में मेले की धूम रहती है। जिसे ‘बटपुजै’ (रास्ते की पूजा) के रूप में मनाया जाता है। नगारों का जुलूस बस स्टेशन के पास गढे़ ‘ओड़े’ (विजय चिन्ह) को न्यौता देते हैं व 2 गते बैशाख को विशाल मेला लगाते है।
पूर्व वर्षाें में विजय की खुशी मंे मनाये जाने वाले इस मेले में सैकड़ों जोड़े नगारे-निशानांे को लेकर गाँवो से लोग भारी संख्या मेें एक साथ आते थे। बाद में भीड़ नियन्त्रण व व्यवस्था हेतु द्वारहाट क्षेत्र के गाँवों को तीन भागों में बाँट दिया गया। साथ ही प्रत्येक दल में कई-कई गाँव शामिल होते थे और दलों को आल, गरख, नौज्यूला इत्यादि नाम दिये गये थे। साथ ही प्रत्येक दल को ‘ओड़ा भेंटने’ (विजय चिन्ह स्पर्श) की बारी का समय निश्चित भी कर दिया गया।


एक-एक घण्टे के अन्तर से तीनों दल ढोल-नगारों एवं रणसिधों की तुमुल ध्वनि आकाश छूते फहराते निशानों के साथ छोलिया नृत्य करते हुए झोड़े -चाचरी गाते पहले से ही नियत रास्तों से निकलकर ‘ओड़े’ की ओर बढ़ते हैंै। ज्यों हि नंगारों का जुलूस ‘ओड़े’ के समीप पहंुचता है तो लोग जोश मेें लाठियाँ हिलाने लगते हैं। ‘ओड़े’ पर पहुँचते ही प्रत्येक व्यक्ति ‘ओड़े’ का स्पर्श करता और इस पर लाठी बरसाता हुआ आगे की ओर दौड़ पड़ता है। इस प्रकार एक-एक घण्टे के अन्तर से प्रत्येक दल ‘ओड़ा’ भेंटने की रस्म पूरी करता है।

एक-एक ग्रामीणों की संख्या 8 से 10 हजार तक होती है। गाँव का वृð व्यक्ति भी ‘स्यालदे’ मेले के दिन सफेद साँफा, चूड़ीदार पायजामा व मूँछों में ताव देते हुए ओड़ा भेंटने पहुँता हैं। प्रवासी दोरयाल ( द्वाराहाट निवासी ) इस दिन के लिए साल भर से छुट्टियाँ व पैसे बचाकर रखता है ताकि साल भर से इस विजय पर्व में शामिल होकर मस्ती से गायें व खेलें। 105 ग्राम सभाओं के इस क्षेत्र में शायद ही कोई बचता हो जो मेले में शामिल न हो इसलिए यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘दोरियाल बैल बेचकर भी स्यालदे मेले को मनाते हैं।’ मेले में महिलायें घाघरे-पिछौड़े व जेवरातों से सजी बाहों में बाहें मिलाकर गोल घेरों में झुण्ड के झुण्डों में झोड़े गाती हुई दिखाई देती हैं। सायः चार बजे बाद मेला छटने लगता है। बाहर से आये व्यापारी, चूड़ी-चरेऊ बेचने वाले जितनी तेजी से भीड़ जुटती है उतनी ही तेजी से भीड़ छटती है और खर्चों की चरमहार, लैम्पों व बिजली की टिमटिमाहट के बीच अपनी स्मृति छोड़कर त्रिदिवसीय मेला समाप्त व अगले वर्ष फिर आने की कहानी कहता है।

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