उत्तराखंड का लोकपर्व -हरेला त्यौहार , जो देता है प्रकृति के संरक्षण का सन्देश

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Uttarakhand Lokparv Harela उत्तराखंड के लोक पर्वों में पर्यावरण संरक्षण तथा प्रकृति की हरियाली ,प्रकृति का सम्मान का पर्व हरेला अर्थात हरित दिवस कुमाऊं में बर्षा ऋतु में मनाया जाता है। हरेले से ही श्रावण सावन मास और वर्षा ऋतु का आरंभ माना जाता है।यह दिन प्रकृति पूजन को समर्पित है जिसमें धरा को हरा-भरा रखने का संकल्प लिया जाता है । हरेला के दिन जगह जगह पेड़ पौधे लगाने की परंपरा है । मान्यता है कि इस दिन एक टूटी टहनी भी मिट्टी में बो दी, तो वो पनप जाएगी। वैसे तो हरेला बौने की परंपरा वर्ष में तीन बार है । पहला चैत्र, दूसरा सावन और तीसरी बार आश्विन मास में मनाया जाता है लेकिन सावन मास में आने वाले हरेला का प्रकृति के संरक्षण तथा सतत विकास के लिए विशेष महत्व रखता है । हरेला का ​अर्थ ही हरियाली है । हरेला पर्व से 9 दिन पहले टोकरी या बर्तन में 5 या 7 प्रकार के अनाज बोए जाते हैं और फिर हरेले के दिन इन्हें काटा जाता है. माना जाता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, किसान को उसकी फसल उतनी ही लहलहाएगी । चूँकि उत्तराखंड भगवान शिव की भूमि तथा गंगा का उद्गम है।. अतः यह सावन का माह जल तथा प्रकृति के संबंध दिखाता है । हरेला पर बुजुर्ग बच्चों को आशीर्वाद देते हैं, तथा लोग पौधे लगाते हैं. Uttarakhand Lokparv Harela

हरेले के दिन कान के पीछे हरेले के तिनके रखने का रिवाज हैं। उत्तराखंड कृषि एवं पर्यावरण आधारित हिमालई राज्य हैं और यह लोकपर्व बीजों के संरक्षण, खुशहाल पर्यावरण को समर्पित है । हरेला पर्व में शिव और पार्वती की पूजा का विधान भी है। यह तारीख 16 अथवा 17 जुलाई होती है । इस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं। हरेला पर्व से 9 दिन पहले हर घर में मिट्टी या लकड़ी की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं (ट्रिटिकम एस्टिवम कुल पूयेसी ) सरसों ( ब्रेसिका जुन्सीय कुल ब्रेसिकेसि ) ,जौं ( होर्डियम वल्गर पूयेसी ) ,मक्का ( जिया मेज कुल पूयेसी ) , मसूर ( लेंस कुलीनारिस कुल फैबेसी ) ,गहत ( मैक्रोटीलोमा यूनी फ्लोरम कुल फैबेसी ),मास ( बिजना मांगो कुल फैबेसि ) की बिछाई जाती है। दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को छाया में रखा जाता है। चौथे-पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। 9 दिन में इस टोकरी में अनाज की बाली बन जाती हैं। इसी को हरेला कहते हैं। माना जाता है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल होगी तथा हरेले का खास आर्शीवाद… दूब जस फैलि जया… है। Uttarakhand Lokparv Harela

कई गांवों में हरेला मंदिर में पूरे गांव के लिए एकसाथ बोया जाता है। 10वीं दिन हरेले को काटकर सबसे पहले घर के मंदिर में चढ़ाया जाता है। फिर घर की सबसे बुजुर्ग टीका-अक्षत लगाकर सभी के सिर पर हरेले के तिनके को रखते हैं, एक आशीष के साथ – ‘जी रया जागि रया, दूब जस फैलि जया । आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यू जस तराण है जो, स्याव जस बुद्धि है जो। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया। ’ यानी जीते रहो, जागृत रहो। आकाश जैसे उच्च, धरती जैसा विस्तार हो। सियार की तरह बुद्धि हो, सूरज की तरह चमकते रहो। इतनी उम्र हो कि चावल भी सिल पर पीसकर खाओ और लाठी टेक कर बाहर जाओ। दूब की तरह हर जगह फैल जाओ।

“जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो,ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो,स्यू जस पराण हो।”

हरे-भरे त्योहार के साथ पुए, सिंगल (कुमाऊं के मीठे व्यंजन), उड़द की दाल के बड़े, खीर, उड़द दाल की भरी पूड़ी का स्वाद आनंद को बढ़ाता है। हरेला मानव को प्रकृति के प्रेम से रूबरू के साथ मानव को पर्यावरण संरक्षण तथा सतत विकास में उसकी भागीदारी के प्रति सचेत करता है ।आप सबको हरेले की बधाई Uttarakhand Lokparv Harela

लेखक प्रो ललित तिवारी , नैनीताल ( Professor Lalit Tiwari , Nainital ) डिपार्टमेंट ऑफ़ फॉरेस्ट्री कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल में कार्यरत हैं और साथ ही कुमाऊं की धर्म , संस्कृति , लोक पर्व एवं परम्पराओं में गूढ़ ज्ञान रखते हैं और इनके संवर्धन के प्रति लगातार कार्यरत एवं समर्पित हैं।

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