हम लोगों ने दो प्रकार की दूरबीनों के बारे में जाना, एक जो लेंस से बना था (गेलेलियन), और जिसमें दर्पण का उपयोग किया गया था न्यूटाॅनियन। वास्तव में ये दोनों दूरबीनें, दृश्य प्रकाश दूरबीनों (Optical Telescope) के प्रकार हैः अपवर्तक ( Refracting ), जिसमें लेंसों का उपयोग किया जाता है, और दूसरी परावर्तक ( Reflecting ), जिसमें दर्पणों का उपयोग किया जाता है।
दूरबीनों की गुणवत्ता उसके आकार से तय होती है, आकार से मेरा अभिप्रायः दूरबीन में लगें मुख्य/ प्राथमिक ( Primary or objective ) प्रकाशिकी (लेंस या दपर्णो) के आकार (व्यास की नाप) से है। प्राइमरी लेंस या दर्पण का आकार जितना बड़ा होगा उससे बनने वाली छवि उतनी ही स्पष्ट, आवर्धित एवं चमकदार (bright) होगी। दूरबीनों में लेसों का प्रयोग तो आप सभी ने देखा होगा, लेकिन बड़े दूरबीनों में हम लेंस का उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि लेंसों के साथ काफी समस्यायें हंै। जिसमें मुख्य हैं वर्ण विपथन, इस समस्या से ग्रसित टेलीस्कोप से बनी छवि अलग-अलग रंगों के साथ धुंधली बनती है। दूसरा कारण, लेंस को हमेशा किनारे से पकड़ा जाता है हम उसे पीछे से सहारा नहीं दे सकते। छोटे लेंसों (लगभग 50 मिमी) को टेलीस्कोप में स्थापित करने के लिए एक मिमी का चारों तरफ से सहारा काफी होता है। पर बड़ी दूरबीन (40 इंच) के लिए एक मिमी के सहारे से पकड़ पाना संभव नहीं है। उसके लिए 4 इंच का भी सहारा कम होगा, क्योंकि 40 इंच लेंस का वजन लगभग 2 क्विंटल होगा। किसी भी तरह से हम यदि लेंस को स्थापित कर भी दे तो भी ये व्यवहारिक नहीं हो सकता। जैसा कि हम जानते हैं कि लेंस में लचीलापन न के बराबर होता है, जिससे चारों तरफ के सहारे से स्थापित किये गये उत्तल लेंस का वजन कंेद्र में अधिक होगा और अपने भार के कारण केंद्र लदने के कारण टूटने का खतरा रहता है। इसके अलावे तापांतर के कारण कसे हुए लेंस विड्डत होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए हम बड़ी दूरबीनों में दर्पणों का उपयोग करते हैं।
दर्पणों के उपयोग से लेंस जनित समस्यायों से बचा जा सकता है। वर्ण विपथन की समस्या से निपटने के लिए दर्पण के परावर्तक सतह का आवरण पीछे न करके सामने की तरफ (front coat) कर देते हैं, जिससे आपतित (आने वाली) किरणें शीशे के पार न होकर सतह से ही परावर्तित हो जाती हंै इसलिए वर्ण विपथन नही होता। किनारें से पकड़ पाने वाली समस्या का भी समाधान होता है क्योंकि मिरर को आप पीछे से भी सहारा देे सकते हैं। इसके अलावा भी अपवर्तक दूरबीनों के साथ समस्या है। जिसमंे इसका बड़ा होना (व्यास के अनुपात में दूरबीन की लंबाई) शामिल है। इसे किसी भी तरह से छोटा नही किया जा सकता है। अपवर्तक दूरबीनों के विपरीत, परावर्तक दूरबीनों के डिजायनों में फेर बदल करके छोटा किया जा सकता है। परावर्तक दूरबीनों के इन्हीं गुणों के कारण आज सभी उन्नत दूरबीनंे परावर्तक हैं।
न्यूटन के बाद दूरबीनों में काफी प्रयोग किये गए। इसी क्रम में 1672 में लाॅरेंट केसेग्रेन ने दूरबीन एक नया डिजायन तैयार किया। इस डिजायन में न्यूटाॅनियन दूरबीन के समतल दर्पण के जगह पर उत्तल-अतिपरवलयाकार दर्पण को समांतर किरणों के लंबवत रखा गया। प्राथमिक दर्पण से परावर्तित किरणें, इस दर्पण द्वारा पुनः परावर्तित होकर प्राथमिक दर्पण के केंद्र में बने छेद से दूरबीन के पीछे फोकस होते थे। उनके इस डिजाइन से कम लंबी दूरबीन में ज्यादा फोकस दूरी पाया जा सकता था। गैलेलियन दूरबीन नली की लंबाई उसके फोकस दूरी से थोड़ी ज्यादा होती थी, जबकि न्यूटाॅनियन की कम, लेकिन इस डिजायन में दूरबीन की लंबाई फोकस दूरी के आधे से भी कम किया जा सकता था। उस समय यह एक चमत्कार था क्योंकि अधिक आवर्धन क्षमता पाने के लिए बड़े एवं लंबे टेलीस्कोप बनाए जा रहेे थे। इसमें एक था केपलर द्वारा निर्मित 45 मीटर लंबी अपवर्तक दूरबीन। इस दूरबीन को आकाशीय पिंडों के ओर के लिए मचान और और क्रेनों की अवश्यकता पड़ती थी। इसी तरह के कुछ प्रयासों में एक थी एरीअल दूरबीन। इस दूरबीन मे प्रथामिकी लेंस को नली में स्थापित न कर, किसी पोल, पेड़, या उपलब्ध लंबी संरचना के उपर बाॅल ज्वाइंट पर स्थापित किया जाता था। आकाशीय पिंडों को देखने के लिए एक संयोजित रस्सी या छड़ की मदद से नेत्रिका (eye piece) को फोकस के पास रखते थें तथा फोकस करने के लिए परीक्षण एवं त्रुटी विधि उपयोग किया जाता था।
केसेग्रेन डिजायन के बाद लगभग 50 वर्षो तक परावर्तक दूरबीनों पर कोई उन्नति नही देखी गयी, जब तक की जाॅन हडले ने सटीक परवलयाकार दर्पण की विधि का विकास न कर लिया। 1721 में उन्होंने पहला परवलयाकार न्यूटाॅनियन दूरबीन राॅयल सोसायटी के समक्ष रखा, जिसमें मिश्रित धातु से बनी 6 इंच व्यास और लगभग 62 इंच फोकस वाली दर्पण का प्रयोग किया गया था। इसके बाद परावर्तक दूरबीनों का नया युग का परारंभ हो गया। इस युग में धातु से बने दर्पणों को पोलिस करने की विधि और अगोलीय दर्पण बनाने की तकनीक का काफी विकास हुआ।
1774 में विलियम हर्शल (संगित शिक्षक, इंगलैंड) ने अपने खाली समय में दूरबीनों के दर्पण बनाने को कार्य प्ररांभ किया और बाद में दूरबीन निर्माण और खगोलीय शोध में अपना जीवन सम्र्पित कर दिया। उन्होंने 1778 में अपने पहली दूरबीन (6.25 इंच) से अपनी प्ररांभिक शानदार खोज की। अपने खोजों से प्रेरित होकर वे बड़े से बड़ा दूरबीन बनाने के लिए प्रयासरत रहे। 1789 में उन्होंनें अपनी सबसे बड़ी दूरबीन बनाई जिसका व्यास 49 इंच और फोकस दूरी 40 फुट था। यह दूरबीन आने वाले 50 वर्षाे तक दूनिया की सबसे बड़ी दूरबीन रही।
दूरबीन के केसेग्रेन डिजायन में भी गोलीय विपथन की समस्या थी। तरक्की के वावजूद दूरबीनों की खामियों को खत्म करने के लिए निरंतर प्रयोग चलते रहे। 1940 में जेम्स गिलबर्ट बेकर द्वारा बर्नाड स्मिड्ट द्वारा बनाये गए स्मिड्ट कैमरा/दूरबीन के लिए केसेग्रन डिजायन प्रस्तावित किया। जिसके तहत केसेग्रन डिजायन में सेकेण्डरी दपर्ण के तुरंत उपर एक करेक्टिंग प्लेट स्थापित किया गया जिससे गोलीय विपथन की समस्या सही किया जा सका। इस मिश्रित डिजायन की मदद से केसेग्रन दूरबीन के संक्रीण दृृश्य-क्षेत्र (field of view) को भी विस्तृत किया जा सका। लेकिन इस डिजायन के करेक्ंिटग लेंस बनना आसान न था। दिमित्रि माक्सूतोव ने इस जटिल करेक्ंिटग लेंस बदले नवचंद्राकर लगया जिसे बनना आसान था। वर्तमान समय में भी स्मिड्ट-केसेगे्रन और माक्सूतोव-केसेग्रेन, दूरबीनों के दोनों प्रकार, अपने छोटे होने और कम से कम खामियों के कारण शौकिया खगोलविदों में लोकप्रिय है। दूरबीनों के क्रमिक विकास के क्रम में काफी प्रयोग किये गयें। दूरबीन द्वारा बनने वाली छवि को अच्छे से अच्छा करने के लिए हर तरह के जोड़-घटाव, हर तरह के प्रयोग किये गए। आज हम जो देखते है, वो उन सभी लोगों के प्रयास और उससे मिलने वाले अनुभव का संचित रुप मात्र है।