भिटौली त्यौहार – उत्तराखंड में कैसे मनाया जाता है? Bhitauli – A heartwarming festival

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हमारी परम्पराऐं ही तो हैं जो हमें हमारी संस्कृति से हमें जोड़े रखती हैं। ये हमारी जड़ें हैं जो हमारे अन्दर हमारी संस्कृति का प्रवाह बनाए रखती हैं और पोषण देती हैं उन बीजों को अंकुरण के लिए, जो प्रसार करते हैं और करेंगे हमारी संस्ड्डति व परम्पराओं का। हमारे यहाँ कुछ ऐसी परम्पराएं व त्यौहार हैं जो प्रकृति व महिलाओं का हमारे पहाड़ों में पहाड़ों के जीवन में क्या महत्व है, को दर्शाता है। महिलायें पहाड़ की रीढ़ मानी जाती हैं। ऐसा संघर्षशील जीवन शायद ही कहीं का होता हो। हमारे यहाँ कई त्यौहार मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है जैसे घुघुतिया, हरेला, फूलदेई आदि। ऐसा ही एक त्यौहार है ‘‘भिटौली’’ ( Bhitauli)। भिटौली मतलब भेेंट करना और यह एक ऐसा अवसर होता है जब महिला अपनी शादी के बाद इस अवसर का इंतजार बड़ी बेसब्री से करती है। कब आयेगी मेरी भिटौली। इसका बड़ा ही भावात्मक महत्व है। यह आशीष है माता-पिता, भाई-बहन का उस लड़की के प्रति जो विवाह कर अपने ससुराल में है। इसमें चावल के आटे के पुए, सिंगल, पूरी, बतासे, मिठाई, दही, सै, कपड़े आदि लड़की को मायके की ओर से दिये जाते हैं और ढेर सारा प्यार।


विवाह के उपरान्त प्रथम बार भिटौली ( Bhitauli ) वैशाख के महीने में विवाहित कन्या को दी जाती है और भेंट कर जाना जाता है उसका हालचाल। इस भावात्मक परम्परा का इतना महत्व है कि आज पहाड़ तराई में क्यों न बस गया हो पहाड़ हो या तराई इस प्रेम का अधिकार हर लड़की को प्राप्त है। यह वर्षाें पुरानी परम्परा है। यह जीवन का वार्षिक उत्सव है मानो। प्रकृति भी बुरांश, सरसों और नव पल्लवों के रूप में इसी के रंग में रंग गई हो। यह आसल – कुशल का एक पारम्परिक माध्यम है जो आज भी जीवित हैै। हमारे पहाड़ों में जै हँू – जै हूँ जब चिड़ियाँ बोलती है तो इस मौसम में उस लड़की की व्याकुलता हमारे परिवारों को मानो कह रही हो कि कोई भिटौली का इंतजार कर रहा है। यह महिलाओं के सम्मान का एक अवसर है।

आधुनिकता ने इसका महत्व व स्वरूप जरूर थोड़ा बदल दिया है लेकिन हमें इसे जीवित रखना चाहिए क्योंकि यह हमारा आधार स्तम्भ है। इसी से होकर प्रेम, आशीष, शुभकामनाओं की भव्य इमारतें खड़ी रहती हैं। जब भिटौली पहुँचती है तो एक जिज्ञासा का माहौल बन जाता है। सभी ईष्ट मित्रों में इसका वितरण होता है और यह भावनाओं का एक सामाजिक उत्सव बन जाता है लेकिन एक भावना ऐसी होती है , जो निरूत्तर होती है। उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। नम आँखों में, प्रेम में, विश्वास में और ऐसी परम्पराओं में इसे भूलना नहीं है। ना ही औपचारिकताओं में इसका महत्व खत्म करना है। इस यादों की पोटली को हर वर्ष भरते रहना है, उत्साह और प्रेम से। यह एक आयोजन नहीं सम्मान भी है। संघर्षशील, सहनशील, वियोग और अज्ञातवास में भी पहाड़ों को सींचने वाली महिलाओं के लिये जो अपने मायके और कभी-कभी पति से दूर इंतजार करती हैं, कभी पति का तो कभी भिटौली का।
तभी तो किसी कवि ने बेटियों के इंतजार की इस व्यथा को अपनी पंक्ति में इस प्रकार कहा है-
‘‘ना बासा घुघुती चैत की।
याद ऐ जाछी मिके मैट की।।’’

दाज्यू ये उत्तराखण्ड है। यहाँ माता पार्वती भी बेटी है यहाँ। तभी तो राजजात होती है।

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