हेमंत बिष्ट , खुर्पाताल ( नैनीताल )- विद्यालय से शाम घर लौटा ही था कि रोबो (मेरा कुत्ता) आदतन गेट पर आ गया। रोबो से बातचीत करता हुआ सा, भीतर गया। रोबो मेरे कपड़े बदलने तक वहीं खड़ा रहा। मैं बाथरूम आया, तो वह भी वहीं आया। हाथ-पैर धोकर भीतर गया, बैठा, तो वह भी पास में बैठ गया। चाय पीने के बाद स्टडी रूम से किताब-कापी लेने गया तो पीछे-पीछे वहीं। लौट कर काॅमन रूम में आया तो रोबो भी साथ। पैन की इंक समाप्त हुई, पैन लेने उठा तो रोबो भी उठ गया। मन में थोड़ा उलझन हुई, मैंने कहा, ‘‘रोबो! चुपचाप बैठ जा।’’ रोबो बैठ गया। मुझे प्रख्यात लेखक और पशु व्यवहार विशेषज्ञ जाॅन कैत्ज के लेख,‘‘क्यों होता है कुत्तों से प्यार’’ की याद आ गयी (स्पेन-2008 मई, जून)। उन्होंने लिखा है, ‘‘हमारे घर लौटने पर वे खुशी से नाच उठते हैं, हमारे घुटनों पर अपना सिर टिकाकर चाहत भरी आँखें हमारी आँखों में डालते हैं।………. पर उनका न बोल पाना ………. बस हमारी कल्पना, हमारे मन चाहे तमाम अनकहे संवाद खाली जगहों को भर देते हैं।’’ (जबकि कुत्ते शायद ज्यादातर रूप से बस यही कह रहे होते हैं – ‘कुछ खिला दो ना!’)। मैंने दीदी से कहा,‘दीदी! शायद रोबो बिस्किट मांगनौ’, दीदी बोली,‘ना बैना, त तो कतुक दिन बै खाणै नि लाग रै’ मैंने रोबो के प्रिय बिस्किट उसे दिए, उसने नहीं खाए। मुझे जाॅन कैत्ज के मत की सच्चाई पर शंका होने लगी। मैंने तत्काल पशु चिकित्सक डा0 मेहरा जी को फोन मिलाया। मेहरा जी नैनीताल से मेरे आवास खुर्पाताल में, रात ही पहँुच गए। इन्जैक्शन दिए, दवाएं दीं, कहने लगे,‘मैं तो ड्रिप भी लाया था लेकिन यह तो एक्टिव दिखायी दे रहा है।’ ड्रिप की आवश्यकता नहीं है। हाँ…… ऐज फैक्टर भी हो सकता है। तीन-चार दिनों तक दवाएं चलीं, एक्टिवनैस तो वही रही लेकिन खाना नहीं खाया। चिन्तित दीदी और पत्नी (गीता) कहते कि इधर एक महीने से इसका व्यवहार भी बदल गया है। मैंने मनन किया वास्तव में बदल गया था रोबो का व्यवहार।
घर में काॅमन रूम में, जहाँ से मेरे कमरे के लिये, दीदी के कमरे लिये और बच्चों के कमरों के लिये दरवाजे खुलते हैं, अल्मारी और दीवार के बीच में एक छोटा कमरानुमा स्थान उसका शयन कक्ष था। वहीं स्वेच्छा से वह सोता था। लेकिन पिछले एक माह से रोबो ने वह स्थान त्याग दिया और दीदी के कमरे में लगे एक सोफे में सोने लगा जो रोबो के दिन में बैठने का स्थान था। रात में उसके नियत स्थान पर सुलाया जाता तो विनम्रता से सो जाता लेकिन थोड़ी देर बाद वापस दीदी के कमरे में आ जाता।
तीन-चार दिन की सेवा सुश्रूषा। कोई लाभ नहीं। डा0 किशोरी लाल जी को बुलवाया गया। दवाएं, इन्जैक्शन और ड्रिप चढ़ाई गई। पहले दिन यदि बांई ओर की थाइ में इन्जैक्शन लगता तो दूसरे दिन खुद ही दूसरी ओर पलटता। रात्रि में 8.00 बजे से ड्रिप चढ़ती। चुप चाप लेटे रहता। उसके पैर को पकड़े हुए रोबो के घर में आने के दिन से आज तक की कहानी चल-चित्र की तरह मस्तिष्क में दौड़ते रहती…………..।
मेरे दोनों बेटे तन्नू, चुन्नू और मैं, अपने घर खुर्पाताल से अपने-अपने स्कूलों को ;नैनीताल कोद्ध अप डाउन करते थे। चुन्नू 7-8 वर्षाें का, तन्नू 11-12 वर्ष का रहा होगा। चुन्नू, कुत्ता लेने की रोज जिद करता। हम टाल देते। एक दिन स्कूटर पर हम लौट रहे थे कि अचानक चाचा जी का बेटा हर्रू थाने के पास स्कूटर रोकता है और स्कूटर की टोकरी पर एक पिल्ला रख देता है। मैं मना करने को होता हूँ कि चुन्नू के चेहरे की खुशी, मुझे मना करने से रोक देती है।
पिल्ला घर में आँगन में लाए तो पत्नी गीता और दीदी हंसा ने पिल्ले को देखा और पत्नी गीता के चेहरे पर असहमति के भाव देखकर मैंने संकेत से पूछा ‘‘क्या?’’, बोली, ‘‘मादा है …………’’ बड़ा बेटा तन्नू बोला,‘‘घर आ गया है तो इसी को पालेंगे …………’’ पिल्ले का घर में प्रवेश तारीख 20 मार्च 2001। चुन्नू ने नाम दिया-रोबो।
कुछ दिनों तक इतना परेशान किया रोबो ने कि रात में जागना पड़ता। बड़ा बेटा तन्नू उसे स्टडी रूम में रखता, ड्राइंग रूम में रखता, बेसमेण्ट के कमरे में रखता ताकि और लोगों को डिस्टर्ब न हो। रात-रात भर जागकर रोबो की सेवा-सुश्रूषा और साथ में ट्रेनिंग। रोबो और तन्नू जैसे एक दूसरे की भाषा समझने लगे। देखते ही देखते रोबो 3-4 महीने का हो गया था। एक दिन विद्यालय से लौटते समय अण्डा मार्केट पर स्कूटर रिपेयर कर रहे थे। कई आवारा कुत्ते खाने की तलाश में इधर उधर भटक रहे थे। एक दूसरे पर झपट रहे थे। चुन्नू बोला,‘‘पापा! मैं इन कुत्तों को देखता हूँ तो रोबो की याद आती है। रोबो भी इधर उधर खाना ढंूढेगा, बडे़ कुत्ते उसको काटेंगे। पापा हम रोबो को कभी नहीं छोड़ेंगे हाँ।’’ कहते-कहते उसका गला रूंध गया।’’ उसके कहने का अन्दाज ऐसा था कि मेरी आँखें भी छलछला गयी। मैंने कहा, ‘बेटा हम क्यों छोड़ेंगे रोबो को?’ तन्नू बोला ‘‘पापा एक दिन ताई जी कह रही थीं, यह तो मादा है इसे कहीं छोड़ आओ और नर ले आओ, चुन्नू ने सुन लिया था।’’, मैंने कहा, ‘‘ताई जी तो पागल हैं। हम क्यों छोडें़गे अपने रोबो को।’’
तन्नू की ट्रेनिंग रोबो को ऐसी आदतें दे गयी कि सारे गाँव का चेहता बन गया रोबो। दीदी का विद्यालय पास में ही है। नियमित 2.30 पर दीदी के स्कूल चले जाना। 1 घंटा वहाँ बैठना, फिर दीदी को लेकर घर आना। दीदी के स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाएं घड़ी देखकर कहते, आज रोबो नहीं आया। तभी ठीक समय पर रोबो पहुँच जाता। उसका नाम रख दिया गया था – ‘‘बाइलाॅजिकल क्लाॅक।’’
तन्नू का इण्टरमीडिएट पूरा होना, इन्जीनियरिंग के लिये चला जाना। जब भी तन्नू का फोन आता, रोबो पास आ जाता। मैं घर में सभी को बताता कि इनकी श्रवण-शक्ति बहुत तेज होती है, तन्नू की आवाज सुन रहा होगा, तब इसके कान में हम फोन लगाते, तन्नू फोन पर, हैलो रोबो! रोबो! कहता और यह सुनता, चूं ……. चूं करता। यही क्रम कई वर्षाें तक चलता रहा। चुन्नू का इण्टरमीडिएट हो जाने के बाद, चुन्नू का एच0 एम0 के लिये जाना और फिर फोन पर वही वार्तालाप ………….।
जब छुट्टियों में दोनों एक साथ आते तो रोबो की शारीरिक भाषा बताती कि रोबो कितना खुश है। फिर मेरे भान्जों के छोटे बच्चों यश, नैना, आयुषी के साथ रोबो के करतबों का आनन्द लिया जाता। एक बार शाम के धुंधलके में बाघ ;ल्योपर्डद्ध का रोबो पर झपटकर उसे दूर फैंकना, रोबो का बच कर आना, तन्नू द्वारा उसकी चिकित्सा, सेवा सुश्रूषा ने उसे तन्नू के बहुत ही निकट ला दिया। तन्नू के जाने के बाद 2, 3 दिन तक खाना तक नहीं खाना, हम सभी को और ज्यादा उदास कर देता था। लेकिन उसके बाद भूल कर भी रात में बाहर अकेले नहीं जाता था। जब कभी बाहर जाना होता तो तन्नू के दरवाजे को धीरे-धीरे थपथपाता, तन्नू बाहर होता तो फिर मेरे दरवाजे को थपथपाता कि मुझे बाहर जाना है। दीदी का शारीरिक रूप से अक्षम होना शायद वह समझता था क्योंकि दीदी के कमरे का दरवाजा हमेशा खुला होने के बावजूद वह पहले मुझे उठाता और फिर दीदी के कमरे से होते हुए हम बाहर जाते।
जब कभी कोई कहता कि आपने कुत्ता क्यों पाल लिया। बच्चे दोनों बाहर हैं। हेम का भी आना जाना लगा रहता है तो दीदी उन्हें एक लिटरेचर पढ़वा देती। ‘1977 में ओरेगाॅन में द डेल्टा सोसायटी बनाई गई इस सोसायटी ने पालतू जीवों के वैज्ञानिक अध्ययनों पर आधारित लाभों की एक लम्बी सूची बनाई ( www.deltasociety.org ) इसमें से कुछ प्रमुख लाभ निम्न हैं-
ऽ मानसिक तनाव से ग्रस्त लोग जिस दिन अपने कुत्तों को बाहर ले गए। उनका रक्तचाप कम हो गया। (एलन. के. 2001)
ऽ कुत्ता पालने वाले बुजुर्गों को, कुत्ता न पालने बाले बुजुर्गाें की अपेक्षा डाक्टर के पास कम जाना पड़ता है।(सीगल 1990)
ऽ पालतू जीव पालने वालों का रक्त चाप कम रहता है। (फ्रीडमैन 1983, एंडरसन 1992)
ऽ पालने वालों के शरीर में ट्राइग्लिसराइड व कोलेस्ट्राल कर स्तर कम रहता है।
ऽ कोरोनरी हृदय रोग से पीड़ित रोगियों में, पालतू जीव पालने वाले ज्यादा दिनों तक जीते हैं। (फ्रीडमैन 1980, 1995)
ऽ जो शिशु उम्र के पहले वर्ष में पालतू जीवों के सम्पर्क में रहते हैैैं। उन्हें एलर्जी जनित राइनाइटिस तथा अस्थमा रोग कम होता है। (हेम लमर 1999)
ऽ एक पुरानी कहावत है अगर आपका कुत्ता मोटा है तो इसका अर्थ आप सैर नहीं कर रहे हैं। ………… आदि-आदि।
तन्नू-चुन्नू दोनों की जाॅब लगने के बाद तो रोबो उदास हो गया था। दीदी का स्कूल चला जाना। गीता का खेतों में जाने पर अकेला आंगन में बैठना, वह अपना काम समझता था। एक बार गोशाला जा कर, गीता को जबरदस्ती घर बुला लाने पर गीता ने देखा कि घर पर दो साधु बैठे हैं। साधुओं को दान दक्षिणा देने तक, रोबो उन्हीं के साथ बैठा रहा। साधु बोला था ,‘माई तेरा कुत्ता जरूर पहले जन्म में कोई धर्म प्रिय आत्मा रहा होगा। हमें घर पर बिठा कर तुम्हें बुला लाया, वरना तो कुत्ते बाबा देखते ही भौंकने-काटने लगते हैं।’
रोबो की ड्रिप पूरी होने को है। मैं उसका सर मल रहा हूँ। अपलक वह मेरी ओर देख रहा है। गीता गरम पानी लेकर आई है। सोने से पहले इन्जैक्शन लगना है। उसे दरी पर लिटाकर उसके सोने के स्थान को हम ले जा रहे हैं। दीदी कह रही है ‘रोबो! जाओ सो जाओ! गर्दन उठाकर दीदी को देख रहा है। हम सुलाकर लौटे हैं…’
नींद नहीं आ रही है। इस बार संयोग रहा कि तन्नू-चुन्नू दोनांे फरवरी में छुट्टी आए। चुन्नू पहले चला गया। रोबो की खूब फोटो खींच कर ले गया। तन्नू 4 मार्च को गया। कार में बैठने के बाद रोबो को देखा तो रोबो की आँखों में आंसू देखे। कार से उतर कर भीगे तौलिए से आंसू पोछे, पूरा शरीर पोछा, थपथपाया और गद्दी में बिठाकर दिल्ली को गया। उस समय तो रोबो बीमार ही नहीं था। फिर चलते समय कैसे तन्नू के मन में क्या चला ………. सोचकर मन भारी हो जा रहा है ……….। रात भर सो नहीं सका।
सुबह उठकर रोबो के पास गया। बिस्तर पर गंदगी नहीं की थी। दरवाजा खोलते ही बाहर आया। जहाँ तक जा सकता था गया, मल त्याग किया, लौटकर उसी दरी में आ गया जिसमें बिठाकर उसे शिफ्ट किया जाता था। उठाकर धूप में लाए तो, दीदी के पास चला गया। वहीं बैठा रहा। मैंने गरम पानी करके उसकी सफाई की। शरीर पोछा और मैं नैनीताल को चला आया था। रात देर में लौटा तो पता चला कि दिन में दीदी के कमरे में बैठने की जिद की, दिन भर वहीं बैठा रहा, फिर उलटियाँ आने लगी तो बेसमण्ट के कमरे में लिटाया है। डा0 साहब के आने का समय हो रहा था। उनकी प्रतीक्षा की। विलम्ब होने पर, उसे देखने स्वयं गया। तो पाया रोबो ने प्राण त्याग दिये थे। जब भी उसे देखने पास पड़ोस के लोग आते तो कहते, उम्र हो गयी है लेकिन कुत्ते कट्टर जान होते हैं, महीनों-महीनों तक नहीं मरते….। लेकिन रोबो तो चलता फिरता ही चला गया था। मुझे उन साधुओं की बातें याद आने लगी,‘माई तेरा कुत्ता…….।’
एक बार नैनीताल में एक लंगुर ‘राजू लंगूर’ आदमियों के बीच रहने का आदी हो गया था। मेरे एक छायाकार मित्र रीतेश सागर उस पर डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाना चाहते थे। इस हेतु जानवरों के व्यवहार पर जानकारियों हेतु हमने साहित्य एकत्र किया था। एक पुस्तक उसने मुझे दी थी जिसमें अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन जी ने लिखा था-
‘मुझे उस आदमी के धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं है जो अपने कुत्ते और बिल्ली के साथ अच्छा व्यवहार न करता हो’
और महात्मा गांधी जी के शब्द थे-
‘किसी देश की महानता और नैतिक प्रगति को पशुओं के प्रति व्यवहार से आंका जा सकता है।’
इन विचारकों के विचार को पढ़कर रोबो के प्रति बच्चों के लगाव के प्रति मुझे गर्व का अनुभव होने लगा था। रोबो की अंतिम विदाई के बाद आँखों में आँसू भर कर गीताजी ने कहा था, ‘‘अब कभी नहीं पालेंगे कुत्ता’’ तो सहसा मुझे प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह के शब्द स्मरण हो आए-
‘‘यदि मुझे अपने करीबी दोस्तों के बारे में बताना पड़े तो सिम्बा मेरी सूची में सबसे ऊपर होगा। हमने फिर दूसरा कुत्ता नहीं रखा। कोई अपने दोस्तों को कैसे बदल सकता है।’’
इस संस्मरण के लेखक हेमंत बिष्ट में, व्यक्तिगत जीवन की घटना को जनसाधारण की घटना के रूप में रेखांकित करने की खास क्षमता है। हेमंत बिष्ट एक उत्कृष्ट लेखक , कवि , राष्ट्रपति पुरूस्कार प्राप्त सेवानिवृत शिक्षक एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उद्घोषक हैं और वर्तमान में अपने गृह निवास – ग्राम खुर्पाताल , नैनीताल में निवास करते हैं। प्रस्तुत है उनकी इस कला की एक बानगी।